बुद्धत्व प्राप्त पुरुषो की नजर में स्त्री

 बुद्धत्व को प्राप्त एक व्यक्ति जो पशु मात्र के लिए भी अपार संवेदनाओं से भरा है स्त्री को बुद्धत्व के लायक नहीं समझता .

विश्व के महानतम लोगों में गिने जाने वाले अधिकतर लोग जो बुद्धि/संवेदनशीलता के स्तर पर आदर्श स्थिति तक पहुंचे स्त्रियों को लेकर कुंठित मानसिकता से ग्रसित रहे . गांधी , बुद्ध , टालस्टाय , नीश्ते ........



नीश्ते  दार्शनिकों में शायद सबसे विवादास्पद है अपने अतिमानव के विचारों के चलते उन पर फासीवादी दर्शन के जनक होने के आरोप लगे . हिटलर ने स्वंय उन्हें अपना बौद्धिक गुरु स्वीकार किया . दुनिया भर की जटिल समस्याओं पर विचार प्रस्तुत करने वाले निश्ते से कोई सहमत हो या नहीं पर उनकी बौद्धिकता , मौलिक वैचारिक सृजन आदि से निसंदेह सहमत होगा पर जब निश्ते स्त्रियों पर विचार करते हैं तो निहायत सतही और कुंठित नजर आते हैं. बौद्धिकता तो बहुत दूर की बात है उनमें सहजबोध  तक नहीं नजर आता . 


नीश्ते के स्त्री विरोधी विचारों का बचाव करने वाले इसे उनके निजी जीवन की प्रतिक्रियात्मक अभिव्यक्ति करार देते हैं . एक दार्शनिक जिसके निजी जीवन में स्त्रियों के साथ संबंध कटु है तो वह पूरी स्त्री जाति के लिए उन्हे सार्वभौमिक सत्य मान लेगा और उन्हें प्रचारित करेगा पूर्ण आत्मविश्वास के साथ ?  नीश्ते अपने स्त्री विचारों को लेकर इतने प्रतिबद्ध थे कि वे स्वंय को विश्व का 'पहला स्त्री मनोवैज्ञानिक' घोषित करते हैं . 


जबकि उनकी स्त्री पर जितनी भी  टिप्पणियां है वह व्यक्तिगत कुंठा से उपजी हुई है . 


स्त्रियों की तुलना बिल्लियों से करने वाले नीश्ते मानते थे कि स्त्री को पुरुषों के बराबर इस लिए नहीं लगना चाहिए क्योंकि ''वे समान अधिकार पाकर और अधिक अधिकार चाहेंगी." 


जो व्यक्ति डार्विन के विकासवाद को खारिज कर देता हो वह स्त्रियों के जीवविज्ञान का विशेषज्ञ होते हुए कहता है ''वे मूलतः अधिक स्वार्थी , भौतिक और झूठी होती हैं . योजनाएं गड़ने में अदि्वतीय ." 



नीश्ते दावा करते हैं कि "आज अगर स्त्रियां पुरुषों की वृत्तियां ( बराबरी ) अपना रही हैं तो इसमें पुरुषों का ही दोष है कयोंकि पुरुषों में अब उतना पुरुषत्व नहीं रहा कि वह स्त्री के वास्तविक सतित्व को बचा सके "

नीश्ते का तात्पर्य यही है कि पुरुष अब स्त्री को अपने जूतों के नीचे दबाकर रखने तथा उसे देवी होने के भ्रम में रखकर दासी बनाकर रखने के अपने दैवीय अधिकार का पालन नहीं कर रहा उसका 'पुरुषतत्व नष्ट हो रहा है . 


हिटलर की ही तरह नीश्ते भी मानते थे कि अतिमानव ( उनके शक्ति के सिद्धांत का कल्पित आदर्श मानव रूप) के विकास के लिए जरूरी है कि स्त्री परिवार संभालने और बचाने की भूमिका को नौकरी और बराबरी से ऊंचा माने अधिक महत्व दे . 


नारीवादियों को सलाह देते हुए नीश्ते कहते हैं ( रेबिका साॅलनिट की किताब 'अ मैन एक्सप्लेन थिंग्स टु मी' याद आ गई) '' स्त्री अपने सहज स्त्रीत्व में ही अधिक प्रभावपूर्ण , शक्तिपूर्ण है . वह पुरुष की भांति बनना चाहेंगी तो उसकी प्रभावपूर्णता समाप्त होती चली जायेगी . वह कुछ पाने की अपेक्षा काफी कुछ खो देगी . इसलिए स्त्री को अपने स्त्रीत्व को ही जीना चाहिए , चाहे उसे घर परिवार में ही सीमित रहना पड़े '' और सुझाव देते हैं ''और वह वहीं लौट जाए जहां वह थी''


अब नीश्ते पुरुषवादी समाज में महान न हो तो क्या हो ? 


जब स्त्री महानता की व्याख्या करेगी न‌ थाने कितने 'महान' घुटनों पर आ जायेंगे !

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